भदरी कुंडा, प्रतापगढ़ का इतिहास एक समृद्ध और रोचक कहानी है, जो संघर्ष, साहस और सांस्कृतिक धरोहर से भरा हुआ है। भदरी एक तालुकेदारी थी, जिसे ब्रिटिश भारत के अवध क्षेत्र में बिसेन राजपूतों के एक कबीले द्वारा नियंत्रित किया जाता था। इस क्षेत्र का इतिहास 18वीं शताब्दी से प्रमुखता से उभरता है।
भदरी का नाम इसके संस्थापक राय सबल शाह के वंशजों के नाम से जुड़ा हुआ है। 1798 में, भदरी में एक महत्वपूर्ण लड़ाई हुई थी जिसमें नाज़िम मिर्ज़ा जान और तालुकदार राय दलजीत सिंह के बीच विवाद हुआ था। इस संघर्ष में राय दलजीत सिंह की मृत्यु हो गई थी, जिसके बाद उनके पुत्र राय ज़लिम सिंह को 1810 में लखनऊ में कैद कर लिया गया था और संपत्ति को सीधे प्रशासन के अधीन कर लिया गया था।
राय ज़लिम सिंह की पत्नी, शेरोज कंवर, ने धार्मिक अनुष्ठानों के बहाने भदरी का दौरा किया और वहाँ पर अपने कबीले को इकट्ठा करके साहसपूर्वक किराए वसूले। उन्हें चकलदार जगत किशोर द्वारा भदरी के किले में आठ दिनों तक घेर लिया गया, जब तक कि लखनऊ से हमले को रोकने का आदेश नहीं आया और साहसी महिला को किले पर कब्जा करने की अनुमति दी गई। 1815 में, राय ज़लिम सिंह को रिहा कर दिया गया और उन्होंने संपत्ति को पुनः प्राप्त किया।
भदरी का इतिहास केवल संघर्षों तक ही सीमित नहीं है। यह क्षेत्र सांस्कृतिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है, जहाँ परंपरागत त्योहारों और मेलों का आयोजन होता है। भदरी के शासक 'राय' की उपाधि धारण करते थे और उनके वंशज आज भी इस क्षेत्र की धरोहर को संजोए हुए हैं।
स्वतंत्रता के बाद, भदरी तालुका को भारतीय गणराज्य में मिला दिया गया। अंतिम शासक, राय बजरंग बहादुर सिंह, 1973 में निधन हो गया और उनके भतीजे राय उदय प्रताप सिंह ने भदरी के नाममात्र के शासक के रूप में कार्यभार संभाला। भदरी कुंडा, प्रतापगढ़ का यह क्षेत्र न केवल ऐतिहासिक महत्व का स्थल है, बल्कि यह भारतीय इतिहास की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत का प्रतीक भी है।