भिखारीदास ( Bhikharidas )

Bhikharidas Pratapgarh
भिखारीदास रीतिकाल के श्रेष्ठ हिन्दी कवि थे। आचार्य भिखारीदास का जन्म प्रतापगढ़ के निकट टेंउगा नामक स्थान में सन् १७२१ ई० में श्रीवास्तव वंश में हुआ था। ये प्रतापगढ नरेश के भाई हिंदूपतिसिंह  के आश्रय में रहे। इनकी मृत्यु बिहार में आरा के निकट भभुआ नामक स्थान पर हुई। इन्होंने काव्य-शास्त्र  पर कई ग्रंथ लिखे जिनमें 'काव्य-निर्णय श्रेष्ठ है। भिखारीदास द्वारा लिखित सात कृतियाँ प्रामाणिक मानी गईं हैं- रस सारांश, काव्य निर्णय, शृंगार निर्णय, छन्दोर्णव पिंगल, अमरकोश या शब्दनाम प्रकाश, विष्णु पुराण भाषा और सतरंज शासिका हैं।  इसमें ध्वनि, अलंकार, तुक और रस आदि  का विवेचन है।  'रस-सारांश में नायक-नायिका भेद तथा 'शृंगार-निर्णय’ में शृंगारिक वर्णन हैं। इनकी कविता कला-पक्ष में संयत तथा  भाव-पक्ष में रंजन कारिणी है। 'काव्यनिर्णय' में भिखारी दास जी ने प्रतापगढ़ के सोमवंशी राजा पृथ्वीसिंह के भाई बाबू हिंदूपतिसिंह को अपना आश्रयदाता लिखा है। राजा पृथ्वीपति संवत 1791 में गद्दी पर बैठे थे और 1807 में दिल्ली के वज़ीर सफदरजंग द्वारा छल से मारे गए थे। ऐसा जान पड़ता है कि संवत 1807 के बाद इन्होंने कोई ग्रंथ नहीं लिखा अत: इनका कविता काल संवत 1785 से लेकर संवत 1807 तक माना जा सकता है।
इनके पिता कृपालदास, पितामह वीरभानु, प्रपितामह राय रामदास और वृद्ध प्रपितामह राय नरोत्ताम दास थे।
भिखारी दास जी के पुत्र अवधेश लाल और पौत्र गौरीशंकर थे जिनके अपुत्र मर जाने से वंश परंपरा खंडित हो गई।
 भिखारी दास जी के निम्न ग्रंथों का पता लगा है -
    रससारांश संवत - रससारांश 1799
    छंदार्णव पिंगल - छंदार्णव पिंगल संवत 179
    काव्यनिर्णय - काव्यनिर्णय संवत 1803
    श्रृंगार निर्णय - श्रृंगारनिर्णय संवत 1807
    नामप्रकाश कोश - नामप्रकाश कोश संवत 1795
    विष्णुपुराण भाषा - विष्णुपुराण भाषा दोहे चौपाई में
    छंद प्रकाश,
    शतरंजशतिका,
    अमरप्रकाश -संस्कृत
 भिखारीदास जी की कुछ रचनाओं का उदाहरण देखिए-
केसरिया पट कनक-तन, कनका-भरन सिंगार।
गत केसर केदार में, जानी जाति न दार।
कौनु सिंगार है मोरपखा, यह बाल छुटे कच कांति की जोटी।
गुंज की माल कहा यह तौ, अनुराग गरे परयौ लै निज खोटी॥

दास बडी-बडी बातें कहा करौ, आपने अंग की देखो करोटी।
जानो नहीं, यह कंचन सी तिय के तन के कसिबे की कसोटी॥

नैनन को तरसैऐ कहां लौं, कहां लौं हियो बिरहाग में तैऐे
एक घरी न कं कल पैऐ, कहां लगि प्राननि को कलपैऐे
आवै यहै अब 'दास विचार, सखी चलि सौतिहु के घर जैऐ।
मान घटेतें कहा घटिहै, जु पै प्रान-पियारे को देखन पैऐ॥

मोहन आयो इहां सपने, मुसकात और खात विनोद सों बीरो।
बैठी हुती परजंक पै हौं उठी मिलिबे उठी मिलिबे कहं कै मन धीरो॥

ऐसे में 'दास बिसासनी दसासी, जगायो डुलाय केवार जंजीरो।
झूठो भयो मिलिबो ब्रजराज को, ए री! गयो गिरि हाथ को हीरो॥

आलिन आगें न बात कढै, न बढै उठि ओंठनि तें मुसुकानि है।
रोस सुभाइ कटाच्छ के घाइन, पांइ की आहट जात न जानि है॥

दास न कोऊ कं कबं कहै, कान्ह तै यातैं कछू पहिचानि है।
देखि परै दुनियाई में दूजी न, तोसी तिया चतुराई की खानि है॥

होत मृगादिक तें बडे बारन, बारन बृंद पहारन हेरे।
सिंदु में केते पहार परे, धरती में बिलोकिये सिंधु घनेरे॥

लोकनि में धरती यों किती, हरिबोदर में बहु लोक बसेरे।
ते हरि 'दास बसे इन नैनन, एते बडे दृग राधिका तेरे॥

अरविंद प्रफुल्लित देखि कै भौंर, अचानक जाइ अरैं पै अरैं।
बनमाल भली लखि कै मृगसावक, दौरि बिहार करैं-पै-करैं॥

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